धौलपुर,(गजेन्द्र कांदिल)आयुर्वेद में तन-मन को दुरुस्त रखने के लिए कई उपाय बताए गए हैं। इनमें से पंचकर्म काफी अहम है। राजा बेटी आयुर्वेदिक चिकित्सालय धौलपुर के चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर प्रज्ञा दीप वर्मा ने बताया है कि पंचकर्म के उपयोग से कैसे तन-मन की परेशानियों को काफी हद तक कम कर सकते हैं,
गठिया, लकवा, पेट से जुड़े रोग, साइनस, माइग्रेन, सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस, साइटिका, बीपी, डायबीटीज, लिवर संबंधी विकार, जोड़ों का दर्द, आंख और आंत की बीमारियों आदि के लिए पंचकर्म किया जाता है।
आयुर्वेद कहता है कि मनुष्य का शरीर जिन 5 तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) से बना है, उन्हीं तत्वों से ब्रह्मांड भी बना है। जब शरीर में इन 5 तत्वों के अनुपात में गड़बड़ी होती है तो दोष यानी समस्याएं पैदा होती हैं। आयुर्वेद इन तत्वों को फिर से सामान्य स्थिति में लाता है और इस तरह से रोगों का निदान होता है। गठिया, लकवा, पेट से जुड़े रोग, साइनस, माइग्रेन, सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस, साइटिका, बीपी, डायबीटीज, लिवर संबंधी विकार, जोड़ों का दर्द, आंख और आंत की बीमारियों आदि के लिए पंचकर्म किया जाता है।
पंचकर्म की बात
पंचकर्म को आयुर्वेद की खास चिकित्सा विधि माना जाता है। यह शरीर की शुद्धि (डिटॉक्सिफिकेशन) और पुनर्जीवन (रिजूविनेशन) के लिए उपयोग किया जाता है। इस चिकित्सा विधि से तीनों शारीरिक दोषों: वात, पित्त और कफ को सामान्य अवस्था में लाया जाता है और शरीर से इन्हें बाहर किया जाता है। शरीर के विभिन्न अंगों और रक्त को दूषित करने वाले अलग-अलग रसायनिक और विषैले तत्वों को शरीर से बाहर निकालने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाएं प्रयोग में लाई जाती हैं। इन प्रक्रियायों में पांच कर्म प्रधान हैं। इसीलिए इस खास विधि को ‘पंचकर्म’ कहते हैं।
इस विधि में शरीर में मौजूद विषों (हानिकारक पदार्थों) को बाहर निकालकर शरीर का शुद्धिकरण किया जाता है। इसी से रोग निवारण भी हो जाता है। यह शरीर के शोधन की क्रिया है जो स्वस्थ मनुष्य के लिए भी फायदेमंद है। आयुर्वेद का सिद्धांत है: रोगी के रोग का इलाज करना और स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को बनाए रखना। पंचकर्म चिकित्सा आयुर्वेद के इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सर्वोत्तम है। इसीलिए सिर्फ शारीरिक रोग ही नहीं बल्कि मानसिक रोगों की चिकित्सा के लिए भी पंचकर्म को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा माना जाता है।
इसमें पांच प्रधान कर्म होते हैं लेकिन इन्हें शुरू करने से पहले दो पूर्व कर्म भी जरूरी हैं। ये हैं स्नेहन और स्वेदन। इन दो विभिन्न प्रक्रियाओं के जरिए शरीर में व्याप्त दोषों को बाहर निकलने लायक बनाया जाता है।
प्रधान कर्म (काय चिकित्सानुसार) के अनुसार निम्न हैं:
1. वमन 2. विरेचन 3. आस्थापन वस्ति 4. अनुवासन वस्ति 5. नस्य
यहां ध्यान देने की बात यह है कि शल्य चिकित्सा संबंधी शास्त्रों के अनुसार आस्थापन और अनुवासन वस्ति को वस्ति शीर्षक के अंतर्गत लेकर तीसरा प्रधान कर्म माना गया है और पांचवां प्रधान कर्म ‘रक्त मोक्षण’ को माना गया है।